समकालीन परिप्रेक्ष्य और कला संदर्भो में लोकसाहित्य की उपादेयता

 

प्रो. डी.पी. चन्द्रवंशी

सहायक प्राध्यापक हिन्दी विभाग, शास. जे.एम.पी. महाविद्यालय तखतपुर, बिलासपुर (छ.ग.)

 

सारांश

लोक साहित्य किसी क्षेत्र विशेष में बंधा न रहकर संपूर्ण विश्व के लिए कल्याणकारी होता है। यह लोक जीवन की बहुआयामी अभिव्यक्ति का आईना हैं यह किसी भी राष्ट्र की बेशकीमती धरोहर है। जीवन के सुख दुख का वर्णन लोक साहित्य में नजर आता है। लोक साहित्य हमारी अनुभूतियों को उभारने में सक्षम है। जन जीवन के रंग तरंग  की सुगंधित लोक अनुभव लोक साहित्य मे संभव है।

 

 

प्रस्तावना

लोकसाहित्य किसी खास जाति या वर्ग, सम्प्रदाय तथा देश से बंधा हुआ नहीं रहता, इसलिए आज के इस प्रजातांत्रिक और अन्तर्राष्ट्रीय सद््भावना के दौर में उसे महत्वपूर्ण स्थान मिलना स्वाभाविक है। लोकसाहित्य लोकजीवन की बहुआयामी अभिव्यक्ति है, अतः समाज तथा मानव मूल्यों की प्रतिष्ठा में इनका बहुत महत्व हैं। किसी समाज में प्रचलित प्रथाओं, विश्वासों, परम्पराओं तथा समाज में घटित होने वाली विभिन्न परिघटनाओं एवं व्यवहारों का सजीव एवं सरल चित्र अंकित रहता है। हमारे जीवन व्यवहारों एवं संस्कारों में अनेक अवसर पर लोकगीतों से ही पूर्णता आती है ग्राम जीवन तो बिना लोकगीतों तथा लोक गाथाओं से अधूरा ही रहता है।

 

लोकगीत तो किसी भी देश प्रदेश के सहेजे गए लोक विश्वासों की बेशकीमती धरोहर होते है। जीवन कोई ऐसा प्रसंग नहीं जहां लोकसाहित्य की सुनहली फसलें न लहलहाती हों। हृदय का प्रत्येक स्पंदन लोक की भावभूति को नई ज्योति प्रदान करता है। लोकजीवन की कड़वी और मीठी सच्चाई इनमें सामने आ जाती है। इंसान के सुख-दुख, हास्य-रूदन, प्रेम और वैमनस्यता की रोचक दास्तान और गांव की जनता का दर्द लोकसाहित्य में अभिव्यक्त हुआ है। लोकगीतों के संबंध में हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है- भाई से विछिन्न बहन की करूण कथा, सौत के, ननद के और सास के अकारण निक्षिप्त वाक्य-बाणों से विद्ध बहू की मर्म कहानी, साहूकार, जमीदार और महाजन के सताए गरीबों की करूण पुकार, आन पर कुर्बान हो जाने वाले विस्मृत वीरों की शौर्य गाथा, अपहार्यमाण सती का वीरत्वपूर्ण आत्मघात, नई जवानी के प्रेम के प्रतिघात, प्रियतम के मिलन, विरह और मातृप्रेम के अकृत्रिम भाव इन गीतों में भरे पड़े हैं। जन्म से लेकर मरण तक के काल में और सोहाग-शयन से लेकर रणक्षेत्र तक फैले हुए विशाल स्थान में सर्वत्र इन गीतों का गमन है।’1

 

जीवन की वह अनुभूति जिससे जीवन को रंग-तरंग और सुगंध मिलती है लोकसाहित्य में मौजूद है। इसमें रक्त का लोहित, हरिद्रा की बेडौल गांठ का पीत और नवपल्लव की हरीतिमा का रंग मिलता है। कौए का काला और तोते का हरा पंख यहां नई चमक-दमक के साथ आँखों को सुहाते हैं। मोर का सतरंगी उजास लोक के कंठ में जलतरंग का कंपन भर देता है। मिट्टी का मटमैलापन आंखों की शीतलता का सबब बन जाती है। बलभद्र लिखते हैं-लोकसाहित्य की परम्परा जन-जीवन से जुड़ी हुई हैं। जनता की सांस्कृतिक छवियाँ इसमें संचित होती है। यहाँ मइयानीम की डाल पर स्वयं हिलोरा लगाती है तब जाकर झूलती हैं। प्यास लगने पर किसी बड़े घर की नहीं, मालिन के घर जाती हैं जिसका संबंध बाग-बगीचे से होता है। मालिन से वह पानी के लिए निहोरा करती है और मालिन भी सब छोड़कर-धधाकर दौड़ नहीं जाती कि मइया आई हुई है। ढोल, झाल की थापों पर यहाँ जीवन थिरकता है। बाढ़ आई तो भी गीत, सुखाड़ है तो गीत, विवाह है तो भी गीत। खेती-खलिहानी है तो भी। जीवन संघर्षो की अमिट छाप है इस पर। जीवनधर्मी संकल्पों की विरासत है लोकसाहित्य। इस विरासत को गति देना ही लोकहित में है। हमें स्मृति-सम्पन्न बने रहना होगा। भगत सिंह और ऐसे तमाम शहीद हमारी स्मृतियों के अंग है। इन्ही स्मृतियों से उपजेगा साम्राज्यवाद के नाश का संकल्प।’2

 

सामाजिक स्तरभेद को मिटाने के लिए लोकगीतों की अहम् भूमिका रही है। पर्वो-त्यौहारों, घरेलू संस्कारों, उत्सवों तथा ऋतुओं में लोककंठ से निकली स्वर लहरियों की मिठास में लोग जातिभेद, ऊॅँच-नीच, अमीर-गरीब की मानसिकता को भूल जाते हैं। लोकसाहित्य में सार्वभौमिकता का गुण होता है। वह किसी एक देश या जाति या धर्म की चीज नहीं होता है। डाॅ. गुप्त का मत है कि लोकसाहित्य जनपदों की अपनी-अपनी लोकभाषाओं में होते हुए और जनपदीय संस्कृतियों को अपनाकर भी केवल अपने जनपदों तक सीमित नहीं रहता, वरन् क्षेत्रीयता की दीवारें लांॅघकर सर्वदेशीय हो जता है। असल में, लोकसाहित्य उन मानवीय लोकभावों और लोकानुभूतियों का साहित्य है, जो सार्वभौमिक है। भाई-बहन, ननद, भौैजी, माता-पुत्री, पति-पत्नी, सास-बहू, पिता-पुत्र, प्रेमिका-प्रेमी, आदि के सम्बन्धों और खासतौर पर उनमें निहित भावनाओं का चित्रण सब जगह एक-सा है। इसी प्रकार हर जनपद के गीतों के विषय, बिम्ब या चित्र, प्रतीक और शैलियाँ भी एक समान हैं।3

 

जीवन के उदात्ता प्रेरक रूप में

लोकसाहित्य जीवन के शिल्प और सौन्दर्य का प्रस्तुतीकरण है। आजादी की लड़ाई के दौरान लोक साहित्य की ऐतिहासिकता के संबंध में के.एन. पणिक्कर लिखते हैं-‘‘औपनिवेशिक स्रोत के पूर्वाग्रह एवं विकृत रूप के कारण, उनके सहारे विद्रोह की असली आवाज को पहचाना नहीं जा सकता। इसके लिए एकमात्र रास्ता लोक संस्कृति के विभिन्न रूपों में इस ऐतिहासिक घटना के बारे में मौजूद मौखिक परम्परा का इस्तेमाल ही है। ये रचनाऐं अधिकतर जनपदीय बोलियों में हैं। अनेक कारणों से शिष्ट कहे जाने वाले साहित्य में 1857 के सशस्त्र स्वाधीनता अभियान की नोटिस नहीं ली गई है किन्तु लोकमन ने इसे जीवित रखा। लोक बोलियों में उसका गौरवपूर्ण स्मरण है और उसमें शरीक होने वाले स्वाधीनता सेनानियों और सेनानायकों की प्रशस्ति। बहरहाल ये ऐतिहासिक महत्व की रचनाएं है। साधारण जनों द्वारा रचित।4

 

सामाजिक अध्ययन के अहम् स्रोत के रूप में समाज की युगीन परम्पराओं, विचारधारा, मान्यताओं, रूढ़ियों और बदलते हुए परिवेश का अध्ययन करने में लोकसाहित्य सहायक हो सकता है। लोकसाहित्य में उपलब्ध विभिन्न तथ्यों और वर्णनों का उपयोग अब समाज और व्यक्ति के मनोविज्ञान के आंकलन में प्रयोग हो रहा है। समाज और लोकसाहित्य एक-दूसरे के पूरक हैं। समाज की दशा और दिशा का वास्तविक ज्ञान लोकगीतों और लोककथाओं में मिलता है। लोकसाहित्य के महत्व पर पाश्चात्य विद्वानों ने अपने विचार व्यक्त किए है। मानवशास्त्री डाॅ. वैरियर एलविन के अनुसार -लोकगीत केवल अपने संगीत स्वरूप तथा वर्णय विषयों के कारण ही अहम् नहीं हैं वरन् उनका महत्व उससे कही बढ़कर है। इन गीतों में मानव जीवन का ब्यौरा ही नहीं है बल्कि यह वो स्थापित और अनुभूत दस्तावेज है जो हमें मानव शास्त्र की प्रामाणिक जानकारी प्रदान करते हैं। मानवशास्त्री को अपने सिद्धान्तें की परख के लिए लोकगीतों की बनिस्बत कोई बेहतरीन गवाह नहीं मिल सकता है। एन्ड्रयू फ्लेचर का मत है कि यदि किसी आदमी को सभी लोकगाथाओं की रचना करने की अनुमति मिल जाती है तो उसे इस बात की फिक्र करने की जरूरत नहीं कि उस देश के कानून कौन बनाता है।’6 एलविन मार्टिनेगो लिखती हैं-लोककाव्य व्यक्तिगत या सामूहिक तीव्र भावों के प्रकाशन है। लोक कविता और कथाओं का स्रोत राष्ट्रीय जीवन के अन्तरतम से निःसृत होता है। जनता का हृदय इन गीतों और गाथाओं में ओत-प्रोत रहता है। ऐसा भी समय आता है जब कि जाति या राष्ट्रीयता की अतिशय भावना ने पूरे देश को लोककवि के रूप में परिणत कर दिया है।’7

 

लोक मनोविज्ञान को समझने के लिए लोकसाहित्य मद्दगार सिद्ध होता है। ग्रामीण समुदायों में झाड़-फूंक, जादू-टोना और अन्य अंधविश्वासों या रिवाजों को लोकसाहित्य में देख जा सकता है। लोकविद् देवेन्द्र सत्यार्थी मानते हैं कि भारत वर्ष का कोई भी चित्र भारतीय प्रथाओं, रीति-रिवाजों और हमारे आंतरिक जीवन की मनोवैज्ञानिक गहराई को इतने स्पष्ट तथा सशक्त ढंग से व्यक्त नहीं कर सकता, जितना कि लोकगीत कर सकते हैं। लोकगीत तो उस निर्मल दर्पण के समान हैं जिसमें जनता जनार्दन का समग्र मन, लोक भाव दिखाई देता है। लोकजीवन की अच्छाई, बुराई, सबलता-दुर्बलता, उठावट-गिरावट, स्वास्थ्यता अस्वस्थता, सदाचार-कद्ाचार, निर्भीकता-भीरूता, मानवता-दानवता आदि मानसिक अवस्थाओं के दर्शन लोकगीतों के अतिरिक्त और कहाँ सम्भव है

 

लोकसाहित्य इतिहास के अध्ययन में भी उपयोगी होता है। लोकसाहित्य में वर्णित गीत, गाथा, कथा और मुहावरों में तत्कालीन समाज की प्रवृत्तियों का चित्रण मिलता है। डाॅ. गुप्त लिखते हैं-लोकसाहित्य और इतिहास का सम्बन्ध बहुत निकट और घनिष्ठ है। लोक साहित्य में एक युग के लोक की तस्वीर रहती है, जबकि इतिहास में व्यक्तियों, विशिष्ट घटनाओं, सामाजिक और सांस्कृतिक स्थितियों के समन्वित एकत्व से लोक का चित्र खडा होता है। कथापरक् लोकगीतों और लोकगाथाओं में जनपद की उन महत्वपूर्ण ऐतिहासिक घटनाओं का वर्णन और पात्रों का चित्रण मिलता है, जिनका इतिहास तक में उल्लेख नहीं है। यदि किसी जनपद के लोक की संस्कृति और सामाजिक स्थिति की वास्तविकता का पता लगाना हो, तो लोकसाहित्य पक्षपातविहीन होने के कारण अनुशीलन का मुख्य विषय है। इसलिए किसी भी युग का लोकसाहित्य उस युग के सामाजिक इतिहास का मौखिक दस्तावेज है।8

 

आज का युग कृत्रिम है। हमारी भाषा, हमारा रिवाज, हमारा विवेक, हमारी नीतिमत्ता, हमारा जीवन, सभी कृत्रिम हो गए है। खुली हवा में चलना फिरना या सोना हमारे लिए भय और लज्जा का विषय बन गए हैं। इसी प्रकार सामाजिक और कौटुम्बिक व्यवहारों में स्वाभाविक होने के लिए इसमें कुछ दम नहीं, जैसे स्वाभाविकता में मौत या सर्वनाश की आशंका हो। लोकसाहित्य के अध्ययन से तथा इसके उद्धार से हम अपनी कृत्रिमता का कवच तोड़ सकेंगे और स्वाभाविकता कह शुद्ध हवा में चल फिरकर रूपशक्ति-सम्पन्न हो सकेंगे।9

 

भाषा अध्ययन के क्षेत्र में महत्व

हिन्दी के विकास में जनपदीय भाषा एवं बोलियों का विशिष्ट योगदान रहा है। बिना लोक बोलियों के हिन्दी शब्दों की शास्त्रीय परम्परा पूर्णतः प्राप्त नहीं कर सकती है। शब्दों की ऐतिहासिक विरासत के ज्ञान के लिए लोकसाहित्य एक महत्वपूर्ण स्रोत होता है। समाज में रहने वाली विभिन्न जातियों तथा कामगारों जैसे लुहार, बढ़ई, कुम्हार, गडरिया, अहीर और मछुवारे आदि जिस पारिभाषिक शब्दों का इस्तेमाल करते हैं, उनके विषय में पूरी जानकारी लोकगीत तथा लोकगाथा जैसी निधियाँ ही दे सकती हैं। मुहावरे लोकोक्ति तथा कहावतों का खजाना भी लोक साहित्य में हैं। विभिन्न शब्दों के विश्लेषण से समाज और भाषा के अन्र्तसबंधों का भी ज्ञान होता है। डाॅ. गियर्सन ने अपनी पुस्तक बिहार पीजेन्ट लाईफ में अनेक जनपदीय और ग्रामीण शब्दों का संग्रह किया है। समय के साथ समाज और संस्कृति बदल जाया करती है। लेकिन शब्दों का महत्व कम नहीं होता। आज ऐसे बहुत सारे शब्द इस प्रकार के मिल जाते हैं जो समाज व्यवहार में प्रचलन में नहीं हैं लेकिन उनसे एक समय विशेष में समाज के मानसिक दशा का पता चलता ही है। लोकसाहित्य का अध्ययन विभिन्न प्रकार के शास्त्रों के अध्ययन में सहायक सिद्ध होता है। भाषा विज्ञान के लिए तो लोकसाहित्य एक अनिवार्य उपकरण के रूप में है।

किसी क्षेत्र विशेष की भाषा के अध्ययन के लिए उस क्षेत्र की लोक परम्परा और लोकसाहित्य का अध्ययन बहुत जरूरी हो जाता है। लोकसाहित्य के द्वारा ही किसी क्षेत्र विशेष की भाषा एवं बोली की स्वाभाविकता, उपयोगिता और संरचना का प्रमाण मिलता है। लोक साहित्य लोक भाषा में निर्मित होने के कारण उसकी भाषा परिमार्जित भले ही हो, किन्तु भाषा के शब्दों का कुछ न कुछ आधार अवश्य होता है। इसी आधार पर लोक भाषा के अनेक शब्दों का अर्थ जिन्हें सभ्य समाज द्वारा निरर्थक समझ लिया जाता है। लोक साहित्य के माध्यम से ढूंढा जा सकता है। शब्दों के ऐतिहासिक विकास, ध्वनि परिवर्तन आदि का अध्ययन लोकभाषा के अध्ययन के आधार पर सम्भव है और लोकभाषा का वास्तविक स्वरूप लोकसाहित्य में उपलब्ध होता है।’10

 

निष्कर्ष

कहा जा सकता है कि लोकसाहित्य हमारे जीवन और मौलिक संस्कृति का आधार तत्व रहा है। आज देश में विकास और उत्थान के नाम पर मानवता के पोषण  तत्वों  के साथ जो खिलवाड़ की जा रही है वह मार्ग अशान्ति और विनाश का है और देर सवेर यह बात हम समझ जाएंगें। लोकसाहित्य केवल गाँव या कृषि चेतना का विषय नहीं है बल्कि उसके जरिए हम अपनी जीवन शैली और सामाजिक आर्थिक ढाँचे को और ज्यादा उदार और समतावादी रूप दे सकते है। भौतिक विज्ञान की सार्थकता इसी बात में निहित होती है जब हम अनुभूतियों को भी महत्व प्रदान करें और लोकसाहित्य हमारी अनुभूतियों को उभारने में सक्षम है और जीवन में कोमलता प्रेम और पारिवारिकता के लिए लोकसाहित्य को अंगीकार करना आवश्यक है जिससे मानव मूल गुणों को विस्तृत न कर बैंठे।

 

संदर्भ ग्रंथ सूची

1.     शर्मा डाॅ, पूर्णचन्द्र, हरियाणवी साहित्य और संस्कृति, हरियाणा साहित्य अकादमी, चण्डीगढ़, पृ. 85 से उद्धत

2.     इतिहासबोध, इतिहास निर्माण के लिए, फरवरी 2008 अंक, सं. लाल बहादुर वर्मा, इलाहाबाद, पृ. 46

3.     गुप्त, डाॅ. नर्मदाप्रसाद, बुन्देली लोक साहित्य, परम्परा और इतिहास म.प्र. आदिवासी लोक कला परिषद, भोपाल, प्रथम 2001, पृ. 39

4.     समकालीन जनमत, पटना, अंक 2, जुलाई 2007, प्रधान संपादक रामजी राय.पृ. 31

5.     उपाध्याय डाॅ. कृष्णदेव लोकसाहित्य की भूमिका, पृ. 271 से उद्धत।

6    उपाध्याय, डाॅ. कृष्णदेव, लोकसाहित्य की भूमिका पृ. 271-272 से उद्धत

7.     गुप्त, डाॅ. नर्मदाप्रसाद, बुन्देली लोकसाहित्य, परम्परा और इतिहास, म.प्र. आदिवासी लोक कला परिषद, भोपाल, प्रथम वर्ष 2001, पृ. 44

8.     सत्यार्थी, देवेन्द्र, बेला फूले आधीरात, पृ. 98 से उद्धत

9.     गुप्त, डाॅ. महेश, लोकसाहित्य का शास्त्रीय अनुशीलन, नेहा प्रकाशन, दिल्ली, 2008 पृ. 26-27

 

 

Received on 26.05.2015       Modified on 12.06.2015

Accepted on 25.06.2015      © A&V Publication all right reserved

Int. J. Rev. & Res. Social Sci. 3(2): April- June. 2015; Page 85-88